मतदान के घटते-बढ़ते ट्रेंड का खूब आंकलन होता है। कोई कहता है-वोट बढ़ा तो सरकार गई, कोई कहता है कि वोट कम पड़ा तो सरकार बच गई। होता भी यही है। लेकिन दावे के साथ यह कहा नहीं जा सकता कि ऐसा ही होगा, क्योंकि वोट देने वाले ने किसके पक्ष में ईवीएम का बटन दबाया है, चेहरा देखकर आंकना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।
ठीक उसी प्रकार वोटिंग प्रतिशत के आधार पर नतीजा निकालना भी बहुत ही कठिन है। आंकड़े इसकी तस्दीक भी करते हैं। देश के विभिन्न राज्यों में 1952 से 2019 के बीच विधानसभा के 365 चुनाव हुए। इनमें 189 (52%) चुनावों में वोटिंग प्रतिशत बढ़ा और सत्तारूढ़ दल ने 66 चुनावों (35%) में पुनर्वापसी की। इसके ठीक उलट 142 (40%) विधानसभा चुनावों में वोटिंग प्रतिशत गिरा फिर भी सत्ताधारी दल 44 चुनावों (32%) फिर सत्ता में लौटा। अब बिहार की बात। यहां हुए 15 विधानसभा चुनावों में 10 मर्तबा वोटिंग प्रतिशत बढ़ा और 4 बार सत्ताधारी दल दोबारा पावर में लौटा। छह बार सरकार बदली। तीन चुनावों में मतदान कम हुआ और इनमें एक दफा ही रूलिंग पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में पहुंची। लिहाजा, मतदान के घटने-बढ़ने के ट्रेंड के आधार पर निर्णायक ढंग से कहना मुश्किल है कि ऊंट किस करवट बैठेगा। लेकिन बढ़ा हुआ वोटिंग ट्रेंड सरकार के लिए अच्छा संकेत तो नहीं ही होता।
जब तक आधी से अधिक सीटों पर मतदान नहीं हो जाता तब तक नहीं कहा जा सकता कि बढ़ा हुआ मत प्रतिशत सत्ताधारी गठबंधन की चिंता बढ़ाने वाला ही होगा। जिन 71 सीटों पर प्रथम चरण में मतदान हुआ उनमें 2015 चुनाव में 54.75% वोट पड़ा था जबकि राज्य में औसत 56.88% मतदान हुआ था। 2010 में इन्हीं सीटों पर औसत वोट 50.60% पड़े थे जबकि राज्य का औसत 52.73% था।
इस बार 54.01% वोटिंग हुई है (फाइनल फिगर नहीं) जो 2015 के बराबर ही और 2010 से पांच प्रतिशत अधिक है। आने वाले दो चरणों में यह और बेहतर होगा। यह ज्यादा बढेगा तो नहीं लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव से पीछे भी नहीं रहेगा। बिहार के मतदाताओं को बधाई दी जानी चाहिए कि बड़ी संख्या में निकल कर उन्होंने कोरोना के भय को नकार दिया और वोट किया।
2010 और 2015 के बीच 66 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत बढ़ा था और पांच में गिरा था। जिन सीटों पर वोट बढ़ा था, उनमें ज्यादातर जदयू और भाजपा ही जीती थी। पहले चरण की अधिकांश सीटें राजद के पास हैं, लिहाजा राजद की ही साख दांव पर है।