राष्ट्रीय युवा दिवस की प्रेरणा हैं स्वामी विवेकानंद। एक ऐसे युवा जिन्होंने
महज 39 साल की ज़िन्दगी और 14 साल के सार्वजनिक जीवन में देश
को एक ऐसी सोच से संजाया जिसकी ऊर्जा आज भी देश महसूस कर रहा
है। आने वाली अनंत पीढ़ियां खुद को इस ऊर्जा से ओतप्रोत महसूस करती
रहेंगी।
“कोई एक जीवन का ध्येय बना लो और उस विचार को अपनी जिंदगी में
समाहित कर लो। उस विचार को बार-बार सोचो। उसके सपने देखो।
उसको जियो….यही सफल होने का राज है।”
दुनिया में सबसे ज्यादा युवा शक्ति आज हिन्दुस्तान में है। विश्व का हर
पांचवां युवा भारतीय है। इन्हीं युवाओँ की बदौलत दुनिया की 13 प्रमुख
अर्थव्यवस्थाओं में भारत के विकास की दर बीते पांच सालों में तीसरे
नंबर पर रही है। कोरोना के बाद विकास की दौड़ में भारत संभावनाओं
से भरा देश बनकर उभरा है और इस संभावना को मजबूती प्रदान करने
वाले वही युवा हैं जो स्वामी विवेकानंद के विचारों से जुड़े हैं और भारत
को दुनिया के मंच पर नेतृत्वकारी भूमिका में तैयार कर रहे हैं।
“उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए”-
युवाओं को दिया गया स्वामी विवेकानंद का यह मंत्र गुलामी के दिनों में
जितना कारगर और प्रेरणादायी था, आज स्वतंत्र भारत में भी उतना ही
प्रासंगिक है। अब भारत ग्लोबल लीडर बनने के लिए तैयार खड़ा है। योग
की शक्ति और अध्यात्म की थाती के साथ देश का युवा दुनिया को दिशा
देने के लिए अधीर खड़ा हो ताकि दुनिया के विभिन्न देशों में जाकर
अपनी प्रतिभा से युवा भारत और भारतीयता का परिचय करा सके। अब
21वीं सदी के तीसरा दशक आते-आते देश दुनिया के नेतृत्व को तैयार हो
चुका है।
स्वामी विवेकानंद की यह सीख आज भी युवाओं को प्रेरित करती है-
“कोई एक जीवन का ध्येय बना लो और उस विचार को अपनी जिंदगी में
समाहित कर लो। उस विचार को बार-बार सोचो। उसके सपने देखो।
उसको जियो….यही सफल होने का राज है।”
युवाओँ के लिए जो स्वामी विवेकानंद का मंत्र है वह सदाबहार है- “जब
तक तुम खुद पर भरोसा नहीं कर सकते तब तक खुदा या भगवान पर
भरोसा नहीं कर सकते।” वे कहते हैं कि अगर हम भगवान को इंसान में
और खुद में देख पाने में सक्षम नहीं हैं तो हम उन्हें ढूंढ़ने कहां जा सकते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने अपने विचारों से दुनिया का ध्यान खींचा था जब
उन्होंने 1893 में अमेरिका शहर शिकागो में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व
किया था। तब जो उन्होंने भाषण दिया उसके समांतर दूसरा भाषण आज
खड़ा नहीं किया जा सका है। स्वामी विवेकानंद का भाषण ‘स्पीच ऑफ द
सेंचुरी’ से कहीं बढ़कर ‘स्पीच ऑफ द मिलेनियम’ था जो आने वाले समय
में भी जीवंत रहने वाला है। आखिर क्या था उस भाषण में? विश्वबंधुत्व,
सहिष्णुता, सहजीविता, सहभागिता, धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, राष्ट्रवाद और
सबका समाहार भारत-भारतीयता।
स्वामी विवेकानंद ने विश्वधर्म संसद में सनातन धर्म का डंका बजाया था।
दुनिया को बताया था कि वो उस हिन्दुस्तान से हैं जो सभी धर्मों और
देशों के सताए गये लोगों को पनाह देता है। जहां रोमन साम्राज्य के हाथों
तबाह हुए इज़राइल की पवित्र यादें हैं, जिसने दी है पारसी धर्म के लोगों
को शरण। स्वामी विवेकाननंद ने कहा था कि दुनिया के सभी धर्मों का
मातृधर्म है सनातन। स्वामी विवेकानंद को इस बात का भी गर्व था कि
हिन्दुस्तान की धरती और सनातनी धर्म ने दुनिया को सहिष्णुता और
सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। सभी धर्मों को सच के तौर पर
स्वीकार करना भारतीय मिट्टी का स्वभाव है। हम धर्मनिरपेक्षता की
पहली प्रयोगशाला एवं संरक्षणदाता हैं।
जब स्वामी विवेकानंद ने विश्वधर्म सम्मेलन को संबोधित करते हुए
‘अमरीकी भाइयों और बहनो’ कहा था तो विश्व भ्रातृत्व का सनातनी
संदेश स्पष्ट था। तत्काल संपूर्ण विश्वधर्म संसद ने करतल ध्वनि से उस
संदेश का इस्तकबाल किया था। यही वजह है कि तब न्यूयॉर्क हेराल्ड ने
लिखा था, “उन्हें (स्वामी विवेकानंद को) सुनकर लगता है कि भारत जैसे
ज्ञानी राष्ट्र में ईसाई धर्म प्रचारक भेजना मूर्खतापूर्ण है। वे यदि केवल मंच
से गुजरते भी हैं तो तालियां बजने लगती हैं।”
भारतीय संस्कृति की जड़ों तक पहुंचने के प्रयास को स्वामी विवेकानंद
आगे बढ़ाते हैं। यही सोच स्वामी विवेकानंद को दुनिया भर में स्वीकार्य
भी बनाती है और उन्हें सनातन धर्म के प्रवक्ता, हिन्दुस्तान और
हिन्दुस्तानी संस्कृति के प्रतीक के तौर पर स्थापित करती है। उनकी
समावेशी सोच आज भी नरेंद्र मोदी की सरकार में ‘सबका साथ, सबका
विकास’ के नारे में झलकता है।
स्वामी विवेकानंद ने दुनिया को सिखाया कि हर कुछ अच्छा करने वालों
को प्रोत्साहित करना हमारा कर्त्तव्य है ताकि वह सपने को सच कर सके
और उसे जी सके। यह सपना अंत्योदय के उत्थान के विचार को भी जन्म
देता है। जब तक देश के आखिरी गरीब के उत्थान को सुनिश्चित न कर
लिया जाए, विकास बेमानी है- इस सोच का जन्म भी विवेकानंद की
सोच से ही हुआ है।
ईश्वर के बारे में स्वामी विवेकानंद की जो धारणा है वह हर धर्म के करीब
है। मगर, यही सनातन धर्म के मूल में भी है। परोपकार। परोपकार ही
जीवन है। इस स्वभाव से हर किसी का जुड़ना जरूरी है। वे कहते हैं,
“जितना हम दूसरों की मदद के लिए सामने आते हैं और मदद करते हैं
उतना ही हमारा दिल निर्मल होता है। ऐसे ही लोगों में ईश्वर होता है।”
विभिन्न धर्मों, समुदायों, परंपराओं और सोच को स्वामी विवेकानन्द की
सोच जोड़ती है। यह जड़ता से मुक्ति को प्रेरित करती है। यही वजह है कि
इस देश में स्वामी विवेकानंद का किसी आधार पर कोई विरोधी नहीं है।
हर कोई स्वामी के विचार के सामने नतमस्तक है। 19वीं सदी में दुनिया
ने सनातनी धर्म के जिस प्रवक्ता को उनके ओजस्वी विचारों के कारण
‘साइक्लोनिक हिन्दू’ बताया था, आज भी दुनिया के स्तर पर वह
सनातनी प्रवक्ता अपनी सकारात्मक सोच के साथ मजबूती से खड़ा है।
तब भी स्वामी विवेकानंद की सोच युवा थी, आज भी युवा है। वे
कालजयी हैं। कालजयी रहेंगे।
लेखक: प्रहलाद सिंह पटेल
केन्द्रीय पर्यटन एवं संस्कृति राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार)
भारत सरकार,
पर्यटन भवन, नई दिल्ली